मीडिया का एक बड़ा वर्ग RSS संगठन की तरह हो गया है, जो हमेशा कहता है कि उसका राजनीति से कोई लेना-देना है, बीजेपी के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता, लेकिन चुनावों के वक्त स्वयं सेवक जमकर प्रचार करते हैं और टिकट वितरण से लेकर राष्टपति पद के उम्मीदवार तक के नाम नागपुर होकर गुजरते हैं। बेहतर है मीडिया दो नाव पर सवारी न करे क्योंकि सत्ता और सियासत की विश्वसनीयता गिरने पर उसे बदलने का मौका तो मिलता है। मीडिया को कौन बदलेगा?
यदि मीडिया से पूरी तरह से भरोसा उठ गया तो जनजागरण का एक बड़ा मंच नौटंकी का मंच हो जाएगा। जिसे जनता जानने और समझने के लिए नहीं बल्कि मनोरंजन के लिए देखेगी। वैसे आज भी टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों को नौटंकी से अधिक महत्व नहीं दिया जाता। टीवी पर बैठे विभिन्न दलों के नेता और उनके समर्थक जिस तरह से एक दूसरे के तर्कों को काटने के लिए खुद ही काटने को दौड़ने लगते हैं, लगता है चौराहे पर खड़े लोग लड़ रहे हों। एंकर न्यायाधीश बन जाता है, जो बोलने के लिए आया है उसे वह कहता है, पहले मेरी सुनिए। जब तक उसके मतलब का जवाब बोलने वाला नहीं देता, उसे अच्छा नहीं लगता। बहस के दौरान अपने ही देशवासियों को गद्दार और पाकिस्तानी कहना अब बहुत बड़ी बात नहीं रही। पता नहीं इसमें सुनने वालों को कोई मजा भी आता है या नहीं पर बोलने वालों को जरूर सुकून मिलता है, वह उनके चेहरे पर दिखाई देता है।यह किसी एक मंच की नौटंकी नहीं है, बल्कि कुछेक को छोड़ दो तो सभी प्लेटफार्म ऐसी ही नौटंकियों से भरे पड़े हैं। सोशल मीडिया पर तो इनते बड़े-बड़े राष्टभक्त तर्कवादी मिल जाएंगे कि बाकी सब उनके उनके सामने बौने दिखने लगेंगे। वे यूपी के अखलाक से लेकर राजस्थान के पहलू खान तक की हत्या को कई तर्कों से जायज ठहरा देंगे और उदाहरणों में राष्टÑभक्ति के उदाहरणों में पृथ्वीराज चौहान से लेकर महाराज शिवाजी तक के अद्भुत पराक्रम का बखान कर डालेंगे। हालांकि उन्हें खुद भी पता नहीं होता कि वे जो कह रहे हैं वह कितना सच है, पर दूसरों को भी पता नहीं है, इसलिए सब चलता है। उन्हें उनकी बात का समर्थन करने वाले भी मिल जाते हैं और विरोध करने वालों को गाली-गलौच देने वाले भी। ऐसा करने वालों में लुटियन जोन से लेकर लोटा लेकर बाहर जाने वालों तक की जमात है। वे जब तक दिन में दो चार बार राष्टÑ और धर्म पर अपने ज्ञान का बखान सोशल मीडिया पर न कर लें, चैन से सो नहीं पाते। इन तथाकथित धर्म और राष्टÑ रक्षकों की नौटंकियों का मीडिया ने ऐसा हौआ बना दिया है कि पूरा देश इस एक ही रंग में रंगा दिखता है।
ऐसा लग रहा है जैसे पूरे देश में मुसलमानों पर हमले हो रहे हों, पूरा देश रामनामी दुपट्टा ओढ़े कीर्तिन कर रहा हो, पूरा देश पाकिस्तान को बस अभी खत्म कर देने के लिए खड़ा होने वाला हो। भावनाओं का ऐसा मंथन करने की कोशिश की जा रही है कि उसकी लहर हर दिल में उठती दिखाई दे। न रोजगार की बात है न महंगाई की, न किसानों की आत्महत्या पर बहसें हैं न एक जुलाई से लागू हो रहे जीएसटी पर कोई बात है। सारी बहसें उन विषयों पर केंद्रित हैं, जिनके परिणाम में भय निकलता है और उसके फलस्वरूप गुस्सा। ऐसा हुआ है इसके प्रदर्शन की भी तैयारियां पहले से ही हैं। कुछ लोग सड़क पर निकलकर नारे लगाने लगेंगे। लेकिन ऐसे कितने लोग हैं? यह संख्या ज्ञात नहीं है। सोशल मीडिया से प्रतिशत से जनता के पक्ष को परोसने वाला मीडिया जब इनकी संख्या बताता है तो हंसी आती है। यह आंकड़ा कभी 10 हजार, कभी 20 हजार कभी-कभी एकाध लाख। तो क्या डेढ़ सौ करोड़ क आबादी वाले देश का प्रतिनिधित्व लाख दो लाख या 10-11 करोड़ लोग कर रहे हैं? क्या इनका निर्णय ही अंतिम निर्णय है? धारणाएं व्यक्तियों अथवा भीड़ को एक धारा में बहने के लिए प्रेरित जरूर करती हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि प्रवाह अनुकूल ही होगा। कई बार प्रवाह प्रतिकूल भी होता है। डर का राष्टयकरण करने में जुटी सियासत और उसके अनुकूल कहानियां गढ़ते मीडिया को अपनी विश्वसनीयता पर फिर विचार करना चाहिए।
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